गजलें और शायरी >> मीर तकी मीर और उनकी शायरी मीर तकी मीर और उनकी शायरीप्रकाश पंडित
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मीर तकी मीर की जिन्दगी और उनकी बेहतरीन गजलें, नज्में, शेर
Mir Taki Mir Aur Unki shayari
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
उर्दू के लोकप्रिय शायर
वर्षों पहले नागरी लिपि में उर्दू की चुनी हुई शायरी के संकलन प्रकाशित कर राजपाल एण्ड सन्ज़ ने पुस्तक प्रकाशन की दुनिया में एक नया कदम उठाया था। उर्दू लिपि न जानने वाले लेकिन शायरी को पसंद करने वाले अनगिनत लोगों के लिए यह एक बड़ी नियामत साबित हुआ और सभी ने इससे बहुत लाभ उठाया।
ज़्यादातर संकलन उर्दू के सुप्रसिद्ध सम्पादक प्रकाश पंडित ने किये हैं। उन्होंने शायर के सम्पूर्ण लेखन से चयन किया है और कठिन शब्दों के अर्थ साथ ही दे दिये हैं। इसी के साथ, शायर के जीवन और कार्य पर-जिनमें से समकालीन उनके परिचित ही थे-बहुत रोचक और चुटीली भूमिकाएं लिखी हैं। ये बोलती तस्वीरें हैं जो सोने में सुहागे का काम करती हैं।
‘मीर’ तक़ी ‘मीर’
प्रसिद्ध शायर ‘मीर’ तक़ी ‘मीर’ को हुए दो सौ से ज़्यादा साल गुजर गये पर वे जैसे अपने समय में लोकप्रिय थे, वैसे ही आज भी हैं। इसकी वजह यह है कि उन्होंने अपने दुःख की भावना को इतना प्रबल कर दिया कि बिलकुल सीधे-सादे शब्दों में कही उनकी बात हर ज़माने के लोगों को प्रभावित करने लगी।
ज़्यादातर संकलन उर्दू के सुप्रसिद्ध सम्पादक प्रकाश पंडित ने किये हैं। उन्होंने शायर के सम्पूर्ण लेखन से चयन किया है और कठिन शब्दों के अर्थ साथ ही दे दिये हैं। इसी के साथ, शायर के जीवन और कार्य पर-जिनमें से समकालीन उनके परिचित ही थे-बहुत रोचक और चुटीली भूमिकाएं लिखी हैं। ये बोलती तस्वीरें हैं जो सोने में सुहागे का काम करती हैं।
‘मीर’ तक़ी ‘मीर’
प्रसिद्ध शायर ‘मीर’ तक़ी ‘मीर’ को हुए दो सौ से ज़्यादा साल गुजर गये पर वे जैसे अपने समय में लोकप्रिय थे, वैसे ही आज भी हैं। इसकी वजह यह है कि उन्होंने अपने दुःख की भावना को इतना प्रबल कर दिया कि बिलकुल सीधे-सादे शब्दों में कही उनकी बात हर ज़माने के लोगों को प्रभावित करने लगी।
पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग।
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां।।
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां।।
‘मीर’ ने तो शायद यह शेर कवि सुलभ आत्माभिमान की दृष्टि से कहा हो किन्तु यह बात पूर्णतः सच निकली है। ‘मीर’ के ज़माने को लगभग 200 वर्ष हो गये। ज़बान बदल गयी, अभिव्यक्ति का ढंग बदल गया, काव्य-रुचि बदल गयी किन्तु ‘मीर’ जैसे अपने ज़माने में लोकप्रिय थे वैसे ही आज भी हैं। कोई ज़माना ऐसा नहीं गुजरा जब कि उस्तादों ने ‘मीर’ का लोहा न माना हो। उनके प्रतिद्वंद्वी ‘सौदा’ ने भी, जो निन्दात्मक काव्य के बादशाह समझे जाते हैं और जिनकी कभी-कभी ‘मीर’ से शायराना चोटें चल जाती थीं, ‘मीर’ की खुले शब्दों में प्रशंसा की हैः-
सौदा’ तू इस ज़मीं से ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही लिख।
होना है तुझको ‘मीर’ से उत्साद की तरफ़।।
होना है तुझको ‘मीर’ से उत्साद की तरफ़।।
उर्दू भाषा की सबसे अधिक साज-संवार करने वाले उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के लखनवी उस्ताद ‘नासिख़’ का मिसरा हैः-
आप बे-बहरा है जो मोतक़दे-‘मीर’ नहीं।
‘ग़ालिब’ ने भी ‘नासिख’ का हवाला देकर उनके विचार की पुष्टि की हैः-
ग़ालिब’ अपना को अक़ीदा है ब-क़ौले-नासिख़’।
आप बे-बहरा है जो मोतक़दे-‘मीर’ नहीं।।
आप बे-बहरा है जो मोतक़दे-‘मीर’ नहीं।।
‘जौक़’ का शेर हैः-
न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब।
‘जौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा।।
‘जौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा।।
उन्नीसवीं सदी के अंत में ‘अकबर’ इलाहाबादी ने लिखाः-
मैं हूँ क्या चीज़ जो इस तर्ज़ पे जाऊं ‘अकबर’।
‘नासिख़ो’-जौक़ भी जब चल न सके ‘मीर’ के साथ।।
‘नासिख़ो’-जौक़ भी जब चल न सके ‘मीर’ के साथ।।
बीसवीं सदी के ईसुल-मुतग़ज़्ज़लीन (ग़ज़ल रचयिताओं के नायक) मौलाना ‘हसरत’ मोहानी लिखते हैं-
शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द वलेकिन ‘हसरत’।
‘मीर’ का शैवाए-गुफ़्तार कहां से लाऊं।।
‘मीर’ का शैवाए-गुफ़्तार कहां से लाऊं।।
‘दाग़’ के शागिर्द नाखुदाए-सुकन जनाब ‘नूह’ नारवी का मिसरा है-
बड़ी मुश्किल से तक़लीदे-जनाबे ‘मीर’ होती है।
और ख़ुद ‘मीर’ कहते हैं-
बड़ी मुश्किल से तक़लीदे-जनाबे ‘मीर’ होती है।
और ख़ुद ‘मीर’ कहते हैं-
मुझको शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब मैंने।
दर्दों-ग़म जमा किये कितने तो दीवान किया।।
दर्दों-ग़म जमा किये कितने तो दीवान किया।।
दरअसल ‘मीर’ की स्थायी सफलता का रहस्य यही है कि उन्होंने अपनी दुख की संवेदना को इतना मुखर कर दिया था कि उनके सीधे-सादे शब्द भी हर ज़माने में बड़े-बड़े काव्य-मर्मज्ञों को प्रभावित करते रहे हैं। भाग्य ने उनके व्यक्तिगत जीवन और उनके समय की सामाजिक परिस्थतियों को स्थिरता और आराम-चैन से इतना अलग कर दिया था कि ‘मीर’ का हृदय एक टूटा हुआ खंडहर बन गया और उसमें से दर्दों-गम की ऐसी तानें निकली जिन्होंने ‘मीर’ को कविता के क्षेत्र में अमरत्व प्रदान कर दिया।
यह ध्यान देने की बात है कि ‘मीर’ के समकालीन और काव्य-क्षेत्र में उन्हीं की-सी हैसियत रखने वाले मिर्ज़ा ‘सौदा’ की काव्य-रचना अपनी चमक-दमक के लिए प्रसिद्ध थी। इनके पूर्ववर्ती उस्तादों के यहां भी सीधी-सादी प्रेम-भावनाओं का वर्णन है। उनके बाद के ज़माने में भी शोखी और चंचलता उर्दू-शायरी का दामन छोड़ती नहीं दिखाई देती। लेकिन ‘मीर’ ने अपना करुणा का रंग सबसे अलग निकाला और इस प्रभाव के साथ अपनी बात कही कि सदियों तक लोगों के दिलों में गड़ी रहेगी। अपने इस रंग के बारे में उनका आत्मविश्वास बहुत बढ़ा-चढ़ा था और वे गम्भीरता को छोड़कर चंचलता का सहारा लेना पसन्द न करते थे। इस मामले में खुद जाकर किसी पर आपत्ति नहीं की, लेकिन जिन चंचलता के पृष्ठ-पोषक कवियों ने इनसे प्रोत्साहन चाहा उन्हें फटकार ही मिली। लखनऊ में थे तो उनके मकान पर मुशायरा हुआ करता था। उसमें एक दिन ‘ज़ुर्रत’ ने, जो नयी उठान के चंचलता-प्रिय कवि थे, अपनी ग़ज़ल पढ़ी जिसकी तत्कालीन रुचि के मुताबिक़ खूब तारीफ़ हुई। ‘मीर’ चुपचाप बैठे रहे। ‘ज़र्रत’ को मुशायरे में मिली प्रशंसा काफ़ी न मालूम हुई तो ‘मीर’ साहब के पास आकर बैठ गये और अपनी ग़ज़ल के बारे में उनकी राय जाननी चाही। ‘मीर’ साहब ने टालमटोल करनी चाही, लेकिन शामत के मारे ‘ज़ुर्रत’ पीछे पड़े गये। ‘मीर’ साहब त्योरी चढ़ा कर बोले, ‘‘कैफ़ीयत इसकी यह है कि तुम शेर तो कहना नहीं जानते हो, अपनी चूमाचाटी कह लिया करो।’’
इसी तरह सआदत यार खां ‘रंगीं’ जो रेख़्ती (ज़नानी बोली की लगभग अश्लील कविता) के जन्मदाता कहे जाते हैं, शायरी के शौक़ में ‘मीर’ साहब के पास गये। ‘मीर’ साहब का बुढ़ापा था और ‘रंगीं’ चौदह-पंद्रह बरस के, उस पर अमीरज़ादे। निहायत शानो-शौकत से पहुँचे। ‘मीर’ साहब उनका रंगढंग देखकर ही समझ गये कि कितने पानी में है। ग़ज़ल सुनकर उन्होंने कहा, ‘‘साहबज़ादे आप खुद अमीर हैं, अमीरज़ादे हैं। नेज़ाबाजी, तीर-अन्दाज़ी की कसरत कीजिए, शहसवारी की मश्क़ फ़रमाइए। शायरी दिलख़राशी और जिग-सोज़ी का काम है, आप इसके दर पे न हों। सआदत यार ख़ाँ इस पर भी न माने और ग़ज़ल की इस्लाह पर जोर दिया। अब ‘मीर’ साहब ने कह दिया, आपकी तबीयत इस फ़न के मुनासिब नहीं, यह आपको नहीं आने का। ख़ामख़ाह मेरे और अपने औक़ात ज़ाया करना क्या ज़रुरी हैं।
शेख इमाम बख़्श ‘नासिख़’ के साथ भी यही क़िस्सा हुआ था, उन्हें भी ‘मीर’ ने शागिर्द बनाने से इन्कार कर दिया था।
इन घटनाओं से यह स्पष्ट है कि ‘मीर’ शायरी को सिर्फ़ मन-बहलाव की चीज़ नहीं समझते थे, बल्कि उसे अपने जीवन का महत्वपूर्ण बल्कि सबसे महत्वपूर्ण अंग मानते थे और दूसरों से भी ऐसी ही आशा करते थे।
यह ध्यान देने की बात है कि ‘मीर’ के समकालीन और काव्य-क्षेत्र में उन्हीं की-सी हैसियत रखने वाले मिर्ज़ा ‘सौदा’ की काव्य-रचना अपनी चमक-दमक के लिए प्रसिद्ध थी। इनके पूर्ववर्ती उस्तादों के यहां भी सीधी-सादी प्रेम-भावनाओं का वर्णन है। उनके बाद के ज़माने में भी शोखी और चंचलता उर्दू-शायरी का दामन छोड़ती नहीं दिखाई देती। लेकिन ‘मीर’ ने अपना करुणा का रंग सबसे अलग निकाला और इस प्रभाव के साथ अपनी बात कही कि सदियों तक लोगों के दिलों में गड़ी रहेगी। अपने इस रंग के बारे में उनका आत्मविश्वास बहुत बढ़ा-चढ़ा था और वे गम्भीरता को छोड़कर चंचलता का सहारा लेना पसन्द न करते थे। इस मामले में खुद जाकर किसी पर आपत्ति नहीं की, लेकिन जिन चंचलता के पृष्ठ-पोषक कवियों ने इनसे प्रोत्साहन चाहा उन्हें फटकार ही मिली। लखनऊ में थे तो उनके मकान पर मुशायरा हुआ करता था। उसमें एक दिन ‘ज़ुर्रत’ ने, जो नयी उठान के चंचलता-प्रिय कवि थे, अपनी ग़ज़ल पढ़ी जिसकी तत्कालीन रुचि के मुताबिक़ खूब तारीफ़ हुई। ‘मीर’ चुपचाप बैठे रहे। ‘ज़र्रत’ को मुशायरे में मिली प्रशंसा काफ़ी न मालूम हुई तो ‘मीर’ साहब के पास आकर बैठ गये और अपनी ग़ज़ल के बारे में उनकी राय जाननी चाही। ‘मीर’ साहब ने टालमटोल करनी चाही, लेकिन शामत के मारे ‘ज़ुर्रत’ पीछे पड़े गये। ‘मीर’ साहब त्योरी चढ़ा कर बोले, ‘‘कैफ़ीयत इसकी यह है कि तुम शेर तो कहना नहीं जानते हो, अपनी चूमाचाटी कह लिया करो।’’
इसी तरह सआदत यार खां ‘रंगीं’ जो रेख़्ती (ज़नानी बोली की लगभग अश्लील कविता) के जन्मदाता कहे जाते हैं, शायरी के शौक़ में ‘मीर’ साहब के पास गये। ‘मीर’ साहब का बुढ़ापा था और ‘रंगीं’ चौदह-पंद्रह बरस के, उस पर अमीरज़ादे। निहायत शानो-शौकत से पहुँचे। ‘मीर’ साहब उनका रंगढंग देखकर ही समझ गये कि कितने पानी में है। ग़ज़ल सुनकर उन्होंने कहा, ‘‘साहबज़ादे आप खुद अमीर हैं, अमीरज़ादे हैं। नेज़ाबाजी, तीर-अन्दाज़ी की कसरत कीजिए, शहसवारी की मश्क़ फ़रमाइए। शायरी दिलख़राशी और जिग-सोज़ी का काम है, आप इसके दर पे न हों। सआदत यार ख़ाँ इस पर भी न माने और ग़ज़ल की इस्लाह पर जोर दिया। अब ‘मीर’ साहब ने कह दिया, आपकी तबीयत इस फ़न के मुनासिब नहीं, यह आपको नहीं आने का। ख़ामख़ाह मेरे और अपने औक़ात ज़ाया करना क्या ज़रुरी हैं।
शेख इमाम बख़्श ‘नासिख़’ के साथ भी यही क़िस्सा हुआ था, उन्हें भी ‘मीर’ ने शागिर्द बनाने से इन्कार कर दिया था।
इन घटनाओं से यह स्पष्ट है कि ‘मीर’ शायरी को सिर्फ़ मन-बहलाव की चीज़ नहीं समझते थे, बल्कि उसे अपने जीवन का महत्वपूर्ण बल्कि सबसे महत्वपूर्ण अंग मानते थे और दूसरों से भी ऐसी ही आशा करते थे।
संक्षिप्त जीवन चरित्र
‘मीर’ ने अपना जीवन-चरित्र स्वयं ही ज़िक्रे-’मीर’ नामक एक फ़ारसी पुस्तक में लिख दिया है। यह पुस्तक बहुत दिनों तक अप्राप्त थी लेकिन कुछ वर्ष पहले अंज़ुमने-तरक़्क़ी-ए-उर्दू के मन्त्री डा.अब्दुल हक़ ने इसकी खोज करके इसे प्रकाशित करवा दिया है जिससे काल-निरूपण तथा तथ्यों की विश्वसनीयता में बड़ी मदद मिली है। ‘मीर’ के बुजुर्ग हिजाज़ (अरब का एक प्रदेश) से भारत आये थे। पहले वे हैदराबाद गये, वहां से अहमदाबाद और फिर ‘मीर’ के प्रपितामह ने आगरे में ( जो तत्कालीन राजधानी थी) आकर दम लिया। उनका कुछ ही दिन बाद देहांत हो गया। ‘मीर’ के पिताह आगरे में फ़ौजदार हो गये। इनके दो बेटे थे। बड़े का दिमाग ख़राब था और वह जवान ही मर गया। छोटे ‘मीर’ अली मुत्तक़ी सूफ़ी फकीर हो गये। उनके तीन लड़के थे। पहली स्त्री से मुहम्मद हसन और दूसरी से मुहम्मद तक़ी और मुहम्मद रज़ी। यही मंझले पुत्र तक़ी बाद में उर्दू काव्य-गगन के सूर्य बनकर चमके।
जन्म के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं मालूम हुआ कि किस सन् में पैदा हुए। ज़िक्रे-‘मीर’ में भी इसका कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन और घटनाओं के समय इन्होंने अपनी जो उम्र बताई है उससे हिसाब लगाने पर इनकी जन्म-तिथि 1137 हि.या 1724 ई. निकलती है। दस-ग्यारह वर्ष ही के थे कि बाप का साया सर से उठ गया। सौतेले बड़े भाई मुहम्मद हसन दुनियादार थे और मीर तक़ी से जलते भी थे। उन्होंने बाप की सम्पत्ति पर तो अधिकार कर लिया और क़र्ज़ का भुगतान इस बच्चे के ऊपर छोड़ दिया। लेकिन मीर तक़ी में स्वाभिमान बचपन ही से था। उन्होंने किसी से सहायता की याचना नहीं की। किन्तु एक दैवी सहायता मिली कि इनके पिता के एक अभिन्न मित्र के मुरीद (शिष्य) सय्यद मुकम्मलख़ां ने अपने गुरु और मीर के पिता के मैत्री-संबंधों का ख़याल करके उनके पास 500 रुपये की एक हुंडी भेज दी। इन्होंने उनमें से 300 क़र्ज़ख़्वाहों को देकर जान छुड़ाई और छोटे भाई को घर छोड़कर नौकरी की तलाश में दिल्ली चले गये। वहां कुछ दिन भटकते रहे। संयोग से मीर-उल-उमरा नवाब समसामुद्दौला के भतीजे ख़्वाजा मुहम्मद बासित को मीर पर दया आई। उन्होंने मीर को नवाब के सामने पहुंचा दिया। नवाब इनके बाप अली मुत्तक़ी को जानते थे। उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर बहुत अफसोस किया और मीर के गुज़ारे के लिए एक रुपया रोज मुक़र्रर कर दिया।
लेकिन मीर की क़िस्मत में चैन से रहना न था। चार-पांच वर्ष के बाद नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला कर दिया। नवाब समसामुद्दौला इसमें मारे गये। मीर सहारा टूटने पर आगरा आये लेकिन फिर कुछ दिनों बाद दिल्ली पहुंचे और अपने सौतेले भाई के मामा ख़ान आरजू के पास रहने लगे। कुछ दिनों उनसे कुछ विद्या लाभ किया। (ख़ान आरजू उस ज़माने के प्रथम श्रेणी के कवियों में से थे।) लेकिन फिर वे उनसे नाराज़ हो गये। मीर का कहना है कि सौतेले भाई की शिकायत पर खान आरजू उनसे बिगड़े थे। किन्तु यह बात समझ में नहीं आती। खान आरजू बच्चे नहीं थे जो किस के शिकायत कर देने-भर से मीर से इतने बिगड़ जाते कि खाने के समय भी उन्हें सख्त सुस्त कहते। कुछ लोग इसका कारण यह बताते है कि वे खान आरजू की पुत्री से प्रेम करने लगे थे। यह प्रेम इतना बढ़ा कि उन्होंने सबसे मिलना-ज़ुलना छोड़ दिया और एक कोठरी में पड़े रहते। इसी हालत में उन्हें उन्माद हो गया और चन्द्रमा में अपनी प्रेमिका की सूरत नज़र आने लगी। उन्माद को मीर साहब भी मंज़ूर करते हैं किन्तु उसका कारण ख़ान आरज़ू का दुर्व्यवहार बताते हैं। ख़ैर, कुछ भी हो, उन्माद रोग तो उन्हें हो ही गया था। अंत में उनकी हालत पर फ़ख़रुद्दीन खां नामक एक सज्जन को तरस आया और उन्होंने बड़े-बड़े हकीमों से इलाज़ कराके मीर को चंगा कर दिया।
ख़ान आरज़ू की ओर से तो इनकी पूरी उपेक्षा थी लेकिन संयोग से इन्हें पहले मीर जाफ़र और उनके बाद सय्यद सआदत अली अमरोही का साथ मिल गया। दोनों बुजुर्ग बड़े विद्याप्रेमी थे और उन्होंने मीर को बहुत कुछ सिखाया। सय्यद सआदत अली खां ने ही मीर को काव्य-रचना करने की राय दी और मीर ने कुछ ही समय में मुशायरों में अपना रंग जमा लिया। लेकिन खान आरज़ू से इनकी बिगड़ती गई। एक दिन खाना खाते समय ही ख़ान आरज़ू ने इनसे इतनी कड़ी बातें कह दीं कि वे बग़ैर खाना खाये उठ गये और ख़ान आरज़ू के घर से निकल गये। संयोग से हौज़ क़ाज़ी पर इन्हें मुल्ला नामक एक आदमी मिला जिसने इन्हें रियायत खां रईस के पास पहुंचा दिया। ये रियायत खां के नौकर हो गये। इसके बाद वे कई रईसों के पास रहे। इसका कारण कुछ तो उनकी नाज़ुक-मिज़ाज़ी और कुछ उस अस्थिरता के ज़माने में रईसों की बिगड़ी हुई हालत थी।
रियायत खां के यहां से किसी बात पर बिगड़कर अलग हुए तो नवाबहादुर के मुसाहिब हो गये। नवाब बहादुर मारे गये तो वे दीवान महानारायण के यहाँ चले गये। फिर दो-तीन महीने बेकारी की हालत में इलाहाबाद के सूबेदार अमीर खां ‘अंजाम’ की हवेली में काटे। इसके बाद उन्हें बंगाल के वकील राजा जुगल किशोर ने अपनी कविताओं के संसोधन के लिए अपने यहां रख लिया और सिफ़ारिश करके राजा नागर मल के दरबार में रखवा दिया। यहां मीर साहब का वेतन अधिक था और वे कुछ अधिक दिन यहां रहे। लेकिन रोज़ाना की लूट-मार से परेशान होकर कुंभेर में सूरज मल जाट के दरबार में रहने लगे। बहुत दिन यहां रहने के बाद वे एक बार अकबराबाद (आगरा) होते हुए फिर दिल्ली पहुंचे और फिर राजा नागर मल के यहां रहने लगे। जाटों की लूट-मार से परेशान होकर नागर मल कामां चले गये। मीर साहब भी उनके साथ वहां गये और फिर जब राजनीतिक उथल-पुथल के कारण नागर मल फिर दिल्ली आये तो उनके साथ मीर साहब भी दिल्ली आ गये। लेकिन अब उन्होंने नागर मल की नौकरी छोड़ दी थी। मशहूर इस अर्से मेंकाफ़ी हो ही गये थे इसलिए कुछ दिनों तत्कालीन बादशाह आलमगीर द्वितीय के साथ रहे। बादशाह ने जब ज़ाब्ता खां पर आक्रमण किया तो मीर भी उसके साथ थे। इतने लड़ाई-झगड़े देखने के बाद मीर साहब अपने घर बैठ गये। रईस और अमीर उमरा घर बैठे उनकी कुछ मदद कर दिया करते थे, बादशाह भी कुछ भेज दिया करता था, लेकिन इनका जी दिल्ली से उचाट हो गया था और चाहते थे कि कहीं इत्मीनान से रहना नसीब हो। दिल्ली के बादशाह ने कई बार इन्हें अपने दरबार में बुलाया मगर ये न गये। बरसों दिल्ली की मार-काट और बरबादी देखकर इनका जी काफ़ी थक चुका था।
‘मीर’ साहब की दिल्ली छोड़ने की इच्छा को सुनकर अवध के तत्कालीन नवाब आसफ़ उद्दौला ने उन्हें बुलाना चाहा और नवाब सालार जंग के सुझाव पर मार्ग-व्यय भी भेज दिया। मीर तुरन्त अकेले ही लखनऊ को चल दिये। रास्ते में फ़रुख़ाबाद के रईस मुजफ़्फ़र जंग ने उन्हें कुछ दिनों के लिए रोकना चाहा लेकिन मीर साहब न रुके। लखनऊ आकर सीधे सालार जंग के मकान पर पहुंचे (लखनऊ आने के लिए नवाब की ओर से ‘मीर’ साहब को सालार जंग ही ने पत्र लिखा था)। सालार जंग ने अतिथि-सत्कार में कोई कसर न छोड़ी और आसफ़-उद्दौला को ‘मीर’ साहब के आगमन की सूचना पहुंचाई। लेकिन नवाबी ज़माना हर काम को आराम और इत्मीनान से करने की आदत। मीर साहब की नवाब से चार-पाँच दिन बाद भेंट भी हुई तो उस समय जबकि वे मुर्गों की लड़ाई देखने आये हुए थे। नवाब साहब ने इन्हें अंदाजे़ ही से पूछा कि क्या तुम मीर तक़ी हो यह मालूम होने पर कि यही मीर है नवाब उनसे गले मिले और अपने पास बिठा लिया। नवाब ने वहां पर उन्हें अपने कुछ शेर सुनाये जिनकी इन्होंने तारीफ की। फिर इनसे कुछ सुना। चलने लगे तो सालार जंग ने कहा कि इन्हें आपने बुलाया था, अब इनके लिए कुछ हो जाना चाहिए। नवाब ने कहा कि मैं सोचकर बताऊंगा। दो-तीन दिन बाद मीर दरबार में बुलाये गये। नवाब साहब ने कृपा की और उन्हें अपने मुसाहिबों में दाखिल कर लिया।
अब मीर साहब को अपने संघर्षमय जीवन से छुटकारा मिला और सुख का जीवन बिताने लगे। रुपये-पैसे की भी दिक्कत न रही और सम्मान भी प्राप्त हुआ। नवाब आसफ़-उद्दौला शिकार के लिए बहराइच गये तो ‘मीर’ साहब भी घोड़े पर सवार उनके साथ थे। उन्होंने इस पर शिकारनामा लिखा। दूसरी बार नवाब साहब शिकार के लिए हिमालय की तलहटी तक गये। इस अवसर पर मीर ने दूसरा शिकारनामा लिखा। दूसरे शिकारनामे की दो ग़ज़लों पर मिसरे जोड़कर नवाब ने मुख़म्मस बनाये थे।
लखनऊ ही में ‘मीर’ ने अपना जीवन चरित्र ‘ज़िक्रे-मीर’ लिखा। उस समय उनकी अवस्था लगभग साठ वर्ष की थी। इसमें उन्होंने अपने निजी जीवन की घटनाओं के साथ ही अपने ज़माने की राजनीतिक उथल-पुथल (बल्कि अराजकता की स्थिति) का विस्तार-पूर्वक उल्लेख किया है। विभिन्न दरबारों और रईसों से सम्बन्धित रहने और सारी राजनीतिक हलचलों को अपनी आंखों से देखने के कारण उनके लिए यह संभव भी हो सका।
जन्म के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं मालूम हुआ कि किस सन् में पैदा हुए। ज़िक्रे-‘मीर’ में भी इसका कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन और घटनाओं के समय इन्होंने अपनी जो उम्र बताई है उससे हिसाब लगाने पर इनकी जन्म-तिथि 1137 हि.या 1724 ई. निकलती है। दस-ग्यारह वर्ष ही के थे कि बाप का साया सर से उठ गया। सौतेले बड़े भाई मुहम्मद हसन दुनियादार थे और मीर तक़ी से जलते भी थे। उन्होंने बाप की सम्पत्ति पर तो अधिकार कर लिया और क़र्ज़ का भुगतान इस बच्चे के ऊपर छोड़ दिया। लेकिन मीर तक़ी में स्वाभिमान बचपन ही से था। उन्होंने किसी से सहायता की याचना नहीं की। किन्तु एक दैवी सहायता मिली कि इनके पिता के एक अभिन्न मित्र के मुरीद (शिष्य) सय्यद मुकम्मलख़ां ने अपने गुरु और मीर के पिता के मैत्री-संबंधों का ख़याल करके उनके पास 500 रुपये की एक हुंडी भेज दी। इन्होंने उनमें से 300 क़र्ज़ख़्वाहों को देकर जान छुड़ाई और छोटे भाई को घर छोड़कर नौकरी की तलाश में दिल्ली चले गये। वहां कुछ दिन भटकते रहे। संयोग से मीर-उल-उमरा नवाब समसामुद्दौला के भतीजे ख़्वाजा मुहम्मद बासित को मीर पर दया आई। उन्होंने मीर को नवाब के सामने पहुंचा दिया। नवाब इनके बाप अली मुत्तक़ी को जानते थे। उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर बहुत अफसोस किया और मीर के गुज़ारे के लिए एक रुपया रोज मुक़र्रर कर दिया।
लेकिन मीर की क़िस्मत में चैन से रहना न था। चार-पांच वर्ष के बाद नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला कर दिया। नवाब समसामुद्दौला इसमें मारे गये। मीर सहारा टूटने पर आगरा आये लेकिन फिर कुछ दिनों बाद दिल्ली पहुंचे और अपने सौतेले भाई के मामा ख़ान आरजू के पास रहने लगे। कुछ दिनों उनसे कुछ विद्या लाभ किया। (ख़ान आरजू उस ज़माने के प्रथम श्रेणी के कवियों में से थे।) लेकिन फिर वे उनसे नाराज़ हो गये। मीर का कहना है कि सौतेले भाई की शिकायत पर खान आरजू उनसे बिगड़े थे। किन्तु यह बात समझ में नहीं आती। खान आरजू बच्चे नहीं थे जो किस के शिकायत कर देने-भर से मीर से इतने बिगड़ जाते कि खाने के समय भी उन्हें सख्त सुस्त कहते। कुछ लोग इसका कारण यह बताते है कि वे खान आरजू की पुत्री से प्रेम करने लगे थे। यह प्रेम इतना बढ़ा कि उन्होंने सबसे मिलना-ज़ुलना छोड़ दिया और एक कोठरी में पड़े रहते। इसी हालत में उन्हें उन्माद हो गया और चन्द्रमा में अपनी प्रेमिका की सूरत नज़र आने लगी। उन्माद को मीर साहब भी मंज़ूर करते हैं किन्तु उसका कारण ख़ान आरज़ू का दुर्व्यवहार बताते हैं। ख़ैर, कुछ भी हो, उन्माद रोग तो उन्हें हो ही गया था। अंत में उनकी हालत पर फ़ख़रुद्दीन खां नामक एक सज्जन को तरस आया और उन्होंने बड़े-बड़े हकीमों से इलाज़ कराके मीर को चंगा कर दिया।
ख़ान आरज़ू की ओर से तो इनकी पूरी उपेक्षा थी लेकिन संयोग से इन्हें पहले मीर जाफ़र और उनके बाद सय्यद सआदत अली अमरोही का साथ मिल गया। दोनों बुजुर्ग बड़े विद्याप्रेमी थे और उन्होंने मीर को बहुत कुछ सिखाया। सय्यद सआदत अली खां ने ही मीर को काव्य-रचना करने की राय दी और मीर ने कुछ ही समय में मुशायरों में अपना रंग जमा लिया। लेकिन खान आरज़ू से इनकी बिगड़ती गई। एक दिन खाना खाते समय ही ख़ान आरज़ू ने इनसे इतनी कड़ी बातें कह दीं कि वे बग़ैर खाना खाये उठ गये और ख़ान आरज़ू के घर से निकल गये। संयोग से हौज़ क़ाज़ी पर इन्हें मुल्ला नामक एक आदमी मिला जिसने इन्हें रियायत खां रईस के पास पहुंचा दिया। ये रियायत खां के नौकर हो गये। इसके बाद वे कई रईसों के पास रहे। इसका कारण कुछ तो उनकी नाज़ुक-मिज़ाज़ी और कुछ उस अस्थिरता के ज़माने में रईसों की बिगड़ी हुई हालत थी।
रियायत खां के यहां से किसी बात पर बिगड़कर अलग हुए तो नवाबहादुर के मुसाहिब हो गये। नवाब बहादुर मारे गये तो वे दीवान महानारायण के यहाँ चले गये। फिर दो-तीन महीने बेकारी की हालत में इलाहाबाद के सूबेदार अमीर खां ‘अंजाम’ की हवेली में काटे। इसके बाद उन्हें बंगाल के वकील राजा जुगल किशोर ने अपनी कविताओं के संसोधन के लिए अपने यहां रख लिया और सिफ़ारिश करके राजा नागर मल के दरबार में रखवा दिया। यहां मीर साहब का वेतन अधिक था और वे कुछ अधिक दिन यहां रहे। लेकिन रोज़ाना की लूट-मार से परेशान होकर कुंभेर में सूरज मल जाट के दरबार में रहने लगे। बहुत दिन यहां रहने के बाद वे एक बार अकबराबाद (आगरा) होते हुए फिर दिल्ली पहुंचे और फिर राजा नागर मल के यहां रहने लगे। जाटों की लूट-मार से परेशान होकर नागर मल कामां चले गये। मीर साहब भी उनके साथ वहां गये और फिर जब राजनीतिक उथल-पुथल के कारण नागर मल फिर दिल्ली आये तो उनके साथ मीर साहब भी दिल्ली आ गये। लेकिन अब उन्होंने नागर मल की नौकरी छोड़ दी थी। मशहूर इस अर्से मेंकाफ़ी हो ही गये थे इसलिए कुछ दिनों तत्कालीन बादशाह आलमगीर द्वितीय के साथ रहे। बादशाह ने जब ज़ाब्ता खां पर आक्रमण किया तो मीर भी उसके साथ थे। इतने लड़ाई-झगड़े देखने के बाद मीर साहब अपने घर बैठ गये। रईस और अमीर उमरा घर बैठे उनकी कुछ मदद कर दिया करते थे, बादशाह भी कुछ भेज दिया करता था, लेकिन इनका जी दिल्ली से उचाट हो गया था और चाहते थे कि कहीं इत्मीनान से रहना नसीब हो। दिल्ली के बादशाह ने कई बार इन्हें अपने दरबार में बुलाया मगर ये न गये। बरसों दिल्ली की मार-काट और बरबादी देखकर इनका जी काफ़ी थक चुका था।
‘मीर’ साहब की दिल्ली छोड़ने की इच्छा को सुनकर अवध के तत्कालीन नवाब आसफ़ उद्दौला ने उन्हें बुलाना चाहा और नवाब सालार जंग के सुझाव पर मार्ग-व्यय भी भेज दिया। मीर तुरन्त अकेले ही लखनऊ को चल दिये। रास्ते में फ़रुख़ाबाद के रईस मुजफ़्फ़र जंग ने उन्हें कुछ दिनों के लिए रोकना चाहा लेकिन मीर साहब न रुके। लखनऊ आकर सीधे सालार जंग के मकान पर पहुंचे (लखनऊ आने के लिए नवाब की ओर से ‘मीर’ साहब को सालार जंग ही ने पत्र लिखा था)। सालार जंग ने अतिथि-सत्कार में कोई कसर न छोड़ी और आसफ़-उद्दौला को ‘मीर’ साहब के आगमन की सूचना पहुंचाई। लेकिन नवाबी ज़माना हर काम को आराम और इत्मीनान से करने की आदत। मीर साहब की नवाब से चार-पाँच दिन बाद भेंट भी हुई तो उस समय जबकि वे मुर्गों की लड़ाई देखने आये हुए थे। नवाब साहब ने इन्हें अंदाजे़ ही से पूछा कि क्या तुम मीर तक़ी हो यह मालूम होने पर कि यही मीर है नवाब उनसे गले मिले और अपने पास बिठा लिया। नवाब ने वहां पर उन्हें अपने कुछ शेर सुनाये जिनकी इन्होंने तारीफ की। फिर इनसे कुछ सुना। चलने लगे तो सालार जंग ने कहा कि इन्हें आपने बुलाया था, अब इनके लिए कुछ हो जाना चाहिए। नवाब ने कहा कि मैं सोचकर बताऊंगा। दो-तीन दिन बाद मीर दरबार में बुलाये गये। नवाब साहब ने कृपा की और उन्हें अपने मुसाहिबों में दाखिल कर लिया।
अब मीर साहब को अपने संघर्षमय जीवन से छुटकारा मिला और सुख का जीवन बिताने लगे। रुपये-पैसे की भी दिक्कत न रही और सम्मान भी प्राप्त हुआ। नवाब आसफ़-उद्दौला शिकार के लिए बहराइच गये तो ‘मीर’ साहब भी घोड़े पर सवार उनके साथ थे। उन्होंने इस पर शिकारनामा लिखा। दूसरी बार नवाब साहब शिकार के लिए हिमालय की तलहटी तक गये। इस अवसर पर मीर ने दूसरा शिकारनामा लिखा। दूसरे शिकारनामे की दो ग़ज़लों पर मिसरे जोड़कर नवाब ने मुख़म्मस बनाये थे।
लखनऊ ही में ‘मीर’ ने अपना जीवन चरित्र ‘ज़िक्रे-मीर’ लिखा। उस समय उनकी अवस्था लगभग साठ वर्ष की थी। इसमें उन्होंने अपने निजी जीवन की घटनाओं के साथ ही अपने ज़माने की राजनीतिक उथल-पुथल (बल्कि अराजकता की स्थिति) का विस्तार-पूर्वक उल्लेख किया है। विभिन्न दरबारों और रईसों से सम्बन्धित रहने और सारी राजनीतिक हलचलों को अपनी आंखों से देखने के कारण उनके लिए यह संभव भी हो सका।
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